साधु समाज का होता वैश्वीकरण

Globalization of Sadhu Samaj

साधु समाज का होता वैश्वीकरण

इस बार का प्रयागराज में लगा कुंभ मेला कुछ विशिष्ट होता दिखाई दे रहा है। 144 साल बाद इस विशेष कुंभ में दो दर्जन से ज्यादा लोग पवित्र गंगा के जल में डुबकी लगा चुके हैं। सबसे ज्यादा लोग अमेरिका और ब्रिटेन से आ रहे हैं। संगम का तट पर विदेशी भाशी अमेरिकी, ब्रिटिश, जर्मन, राषियन, फ्रेंच और स्पेनिश निवासी लोग जय श्रीराम और हर हर गंगे के नारे लगाते देखे गए। अनेक विदेशी पुरुष और महिलाओं की आत्मा को संतुष्टि मिली और अनुभव अविस्मरणीय रहा। सनातन साधुओं की संस्कृति और अनूठी परंपराओं से प्रसिद्ध उद्योगपति स्टीब जाॅब्स की पत्नी लॉरेन पॉवेल तो इतनी प्रभावित हुई कि इन्होंने अपना नाम परिवर्तित करके कमला रख लिया। वह निरंजनी अखाड़े के आचार्य महामंडेलष्वर कैलाषानंद गिरी के आश्रम में रहीं। इस कल्पवास में दुनिया की सबसे अमीर महिला लाॅरेन ने साधुओं की संगत में सादगीपूर्ण जीवन बिताया।  साधुओं की इस महिमा के आध्यात्मिक महत्व से सनातन धर्म और साधु-समाज का वैष्वीकरण हो रहा है। इसके व्यापक प्रभाव से भारतीयों के धर्मांतरण पर अंकुश लगेगा। राष्ट्र निर्माण और सांस्कृतिक वैभव की दृष्टि से साधु-समाज का यह काम राश्ट्र-बोध जगाने वाला है।    

                शंकराचार्य ने साधु-संन्यासियों के सार्थक उपयोग के लिए ही चारों दिशाओं में चार मठों की स्थापना की थी। इन मठों को ज्योतिर्मठ, श्रंृगेरी्, गोवर्धन और शारदा मठ के नामों से जाना जाता है। ये मठ धर्म और संस्कृति के प्रचार-प्रसार के साथ सामाजिक कार्यों से भी जुड़े रहे है। इतिहास गवाह है आजादी की लड़ाई में अखाड़ों से जुड़े बाबाओं ने झांसी की रानी लक्ष्मीबाई के साथ अंग्रेजों से युद्ध भी लड़े थे।       मानव शक्ति के रूप में भारत के पास विशाल साधु समाज है। जिसे अब तक आंतरिक चेतना एवं अतीन्द्र्रीय शक्तियों के नियंत्रण का ही मुख्य कारक एवं प्रतीक माना जाता रहा है। यदि यह शक्ति राष्ट्र निर्माण संबंधी विकास कार्यों से जुड़ी बुनियादी समस्याओं के हल में जुट जाएं तो राष्ट्र्र का बहुत भला हो सकता है। क्योंकि इस समाज के साथ अपार शारीरिक बल होने के साथ धार्मिक न्यासों की संपत्ती के रूप में अकूत आर्थिक बल भी है।  दिवंगत जयगुरुदेव बाबा के पास 1200 करोड़ और सत्य संाई बाबा के पास से अकूत दौलत के भण्डार हुए थे। हालांकि सांई न्यास करीब 500 ग्रामों को अपनी ओर से पेयजल उपलब्ध कराता है और हजारों लोगों को शिक्षा व स्वास्थ्य की मुफ्त सेवा भी करता है। तय है, हमारे मंदिर और धार्मिक न्यासों के पास अरबों की धन-संपदा तो है ही, उनके पास सनातन के वैश्वीकरण की भी अपार क्षमताएं हैं।

                भारत के हर परिर्वतनकारी युग में मठ, मंदिरों और साधुओं ने सास्ंकृतिक चेतना का नवजागरण कर राष्ट्र निर्माण को नया मोड़ देते हुए उदात्त भावनाओं और मंगलकारी सिद्धान्तो का प्रतिपादन किया है। जिससे धर्म दीर्धकालीक सत्ताधारियों के राजनीतिक लाभ का हितपोषक न बना रहे। यही कारण है कि विश्वमित्र, वषिश्ट चाणक्य, महावीर, बुद्ध, जगतगुरु शंकरचार्य, गुरुनानक देव, चैतन्य महाप्रभु, स्वामी दयानंद सरस्वाती, महार्षि अरविंद, स्वामी विवेकानंद और ज्योतिबा फुले जैसे राष्ट्रप्रेमियों ने देश को आततायी विदेशी आक्रांताओं से लड़ने की शक्ति देने के साथ अज्ञान, भूख, अराजकता और आसमान समाजिक ढ़ांचे से जूझने की भी चुनौती व प्रेरणा आम जनमानस को दी। मध्ययुग के अंधकार से भारतीय जनमानस को कबीर, तुलसी, सूर, रैदास, दादू, मालूकदास और नानकदेव जैसे संत कवियों ने ही उबारकर नवयुग के निर्माण की आधारशीला रखी थी।

                स्वतंत्रता पूर्व भारत में करीब 60 लाख साधु थे, वर्तमान में इनकी संख्या एक करोड़ से भी ज्यादा है। साधु समाज की इस गण्ना में रोगी, भिखारी, बाजीगार, सपेरे, नट, मदारी, लावारिस और अपाहिज भी शुमार हैं। इनकी संख्या 80 प्रतिशत है। पहुंचा हुआ साधु इन्हें साधु नहीं मानता। ऐसे ही साधुओं की बदौलत घर्म और नैतिकता का मूल मंत्र खंडित हो रहा है। ये साधु ग्रामीण क्षेत्रों में आसानी से पैठ बनाकर ग्रामीणों को गांजा, भांग, जैसे व्यसनों का आदी बना लेते हैं। यही साधु वेषधारी हत्या, बलात्कार, ठगी और अपहरण जैसे गंभीर मामलों के आरोपी निकालते हैं। दरअसल इन साधुओं को जब अनपेक्षित मान सम्मान मिलने लगता है तो यह बौरा जाते हैं। नतीजतन ज्यादा से ज्यादा धन बटोरने और भौतिक सुविधाएं जुटाने में लग जाते हंैं। ऐसे साधुओं की जहां जनता द्वारा उपेक्षा की जाने की जरूरत है, वहीं साधु समाज इन्हें शिक्षित कर समाज के लिए हितकारी साधु भी बना सकता है। जिससे ये साधु समाज को मद्य निषेध एवं सदाचारी के संस्कार तो दें।

                                                हालांकि साधु जीवन पर अब रमता जोगी, बहता पानी की कहावत पूरी तरह चरितार्थ नहीं हो रही है। मोक्ष के प्रचारक ये साधु भौतिकवाद के शिकार होकर वैभव व प्रदर्शन की प्रवृत्तियों के आदी भी हो रहे है। मोह माया भौतिक सुखों और कारों का काफिला इनके ईद गिर्द मंडरा रहा है। सूचना तकनीक के चलते तमाम साधुओं का भू-मण्डलीयकरण तो हुआ ही, बाजारवाद की गिरफ्त में भी ये आ गए। लिहाजा धर्म अरबों-खरबों के उद्योग में परिवर्तित हो गया। देखते-देखते बीते दो दर्शेको के भीतर इनकी घास-फूस की झोपड़ियां आलाशीन अट्ट्रालिकाओं में तबदील हो गईं। इसी कारण साधु समाज पर सवाल उठाये जाने लगे कि मोह माया और भौतिक सुखों से ऊपर उठने का दावा करने वाले जो सिद्ध पुरुष स्वयं भोग विलास में संलग्न हो गए हैं, वे अध्यात्म का उपदेश देकर क्या समाज को भौतिकवादी बुराइयों से उबार पाएंगे ? लेकिन अब कुंभ में देखने में आ रहे है कि जो वास्तविक धर्मनिश्ठ साधु हैं, वे विश्व की महाशक्तियों को प्रभावित कर रहे हैं।

                                  साधु का प्रमुख गुण समष्टिगत होता हैं। इसलिए वह धर्म का प्रतिनिधि है। साधु के सदाचरण, संयमी, अंसचयी और सात्विक होने का प्रभाव जितना समाज पर पड़ता है, उतना जनबल तथा धनबल का नहीं पड़ता। इसलिए इन दिव्य पुरुषों के एक इशारे पर लोग करोड़ांे लुटा देते है। साधु समाज भारतीय वेद, उपनिषद और पुरण इतिहास के पुनर्लेखन एवं तार्किक व्याख्या लेखन के सिलसिले में भी उल्लेखनीय कार्य कर सकते हैं। क्योंकि हमारे प्राचीन साहित्य को धार्मिक पाखण्ड, कर्मकाण्ड और अंधविश्वास का प्रचारक मानकर खिल्ली उड़ाई जा रही है। यहां तक कि राम और कृष्ण जैसे विराट व्यक्तित्व वाले राष्ट्र नायकों तक को पुरातत्व जैसा जिम्मेदार विभाग मिथक ठहरा कर विवाद का विषय बना देता है। भारत में आर्यों के बाहर से आने की झूठी अवधारणा गढ़ दी गई। प्राचीन संस्कृत साहित्य को कपोल कल्पना करार दे दिया गया। इसे देश के तथाकथित वाम साहित्य और इतिहासकारों ने कृतज्ञ भाव से स्वीकार भी लिया। जबकि वास्तविकता है कि हमारे पौराणिक आख्यानों में प्रणय, राजनीति, दंडनीति, अर्थनीति जल और शिक्षा प्रबंधन की संरचना के सूत्र व सिद्धांत हैं। युद्धशास्त्र, विमान शास्त्र, वास्तु शास्त्र, आयुर्वेद और कामशास्त्र विषयक ये प्राचीन उपलब्धियां चमकृत करने वाली हैं। भाषा, व्याकरण और योग के क्षेत्रों में हम अनुपम हैं। जरूरत है, इनके गूढ़ सूत्रो के रहस्यों को खोलकर मानव उपयोगी बनाना ? इस संदर्भ में हम बाबा रामदेव से उत्प्रेरित हो सकते हैं। जिन्होंने पतंजलि योग-सूत्र के रहस्यों को लाइलाज बीमारियों से मुक्ति का साध्य बनाकर आधुनिक चिकित्सा विज्ञान को ही चुनौती दे डाली ?

                बहरहाल साधु समाज अपने जनबल और अर्थ बल से बुनियादी समस्याओं के निदान में शिरडी के सांई बाबा न्यास की तरह जुट जाए तो उसका समाज के लिए रचनात्मक क्रियान्वयन से जो वातावरण निर्माण होगा तो जो युवा-शक्ति ईमानदारी से काम करने की इच्छा रखती है, उसका राष्ट्र कोे अद्वितीय व अपेक्षित योगदान मिलने लग जाएगा ? लाल फीताशही के चलते जो प्रतिभाएं तालमेल न बिठा पाने के कारण पलायन कर दुसरे देशों में अपनी मेधा का परचम फहरा रही हैं, उनकी पलायनवादी प्रवृत्ति पर अंकुश लगेगा। युवा और साधु समाज की संयुक्त ताकत पानी, विद्युत, शिक्षा, स्वास्थ, सड़क निर्माण जैसे क्षेत्रों की दशा और दिशा बदल सकती है। मतांतरण और लव-जिहाद के प्रति भी साधु-समाज हिंदुओं को जागृत करने का काम कर सकता है। वहीं साधुओं की विशाल संख्या के रूप में जो इस समाज के पास मनुज शक्ति है, वह जहां है वहीं रहकर नदी और तालाबों का कायाकल्प कर जल-स्रोतों के अक्षय भण्डारों का पुनरुद्धार कर सकते हैं। यदि यह शक्ति राष्ट्र निर्माण में जुट जाती है तो इनसे प्रभावित आम जनमानस भी स्वप्रेरणा से इनका अनुयायी हो जाऐगा। क्योंकि वह साधु समाज ही है, जिससे कल्पना की जा सकती है कि वह भ्रष्टाचार और पक्षपात की दुर्भावना से मुक्त रहेगा।